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बीकानेर रियासत में 287 पाठशाला खोलने वाले महान शिक्षा संत स्वामी केशवानंद जी महाराज को शत शत नमन।
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बीकानेर रियासत में 287 पाठशाला खोलने वाले महान शिक्षा संत स्वामी केशवानंद जी महाराज को शत शत नमन।
स्वामी केशवानन्द (Swami Keshwanand {1883–1972}) ऐसे अनोखे साधु थे जिन्होंने आत्म-कल्याण या मोक्ष-प्राप्ति के स्वार्थमय पथ पर चलने की अपेक्षा आजीवन ब्रह्मचारी रहते हुए पर-सेवा और लोक-कल्याण में लगे रहना श्रेयस्कर समझा। उसी को उन्होेंने पूजा-पाठ, तप-जप और ध्यान-समाधि बनाया। उस खाली हाथ फकीर ने जन-सहयोग से करोड़ों रूपए की शिक्षा-संस्थाएं खड़ी कर दीं और 64 वर्ष के लोक-सेवा-काल में जन-जागरण का जो विशाल कार्य किया उसका मूल्य तो रूपयों में आंका ही नहीं जा सकता। राजस्थान की ओर से चुने जाकर सन् 1952 से 1964 तक वे दो बार संसद सदस्य (राज्य सभा) रहे और उस काल में उन्हें जो भत्ता मिला उसे उन्होंने ग्रामोत्थान विद्यापीठ के संग्रहालय के विस्तार में लगा दिया। स्वतंत्रता-सेनानी होने के नाते उन्होंने कभी न किसी भत्ते की मांग की और न ही किसी ताम्रपत्र की चाह रखी। वे इतने निरभिमान थे कि स्वतंत्रता-संग्राम में अपनी भागीदारी को वे देश के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन मात्र कहते थे। अपनी चिरकालिक समाज-सेवा के लिए वे कहा करते थे कि मैंने तो लोगों से लेकर लोगों के ही हित में लगाया है। इसमें मेरा अपना क्या है? वस्तुतः वे निष्काम कर्मयोगी थे। यद्यपि स्वामी केशवानन्द ने स्व-प्रचार और अपनी प्रशंसा को कभी पसन्द नहीं किया फिर भी हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा ने उन्हें राष्ट्र-भाषा हिन्दी की सेवा के लिए क्रमशः ”साहित्य वाचस्पति” और ‘‘राष्ट्रभाषा गौरव’’ की उपाधियों से विभूषित किया। सिख संगत ने उन्हें सन् 1956 में पवित्र हरि-मंदिर साहिब अमृतसर के उन स्वर्ण-पत्रों के जीर्णोद्धार -उत्सव का मुख्य अतिथि बनाकर सम्मानित किया, जिन्हें महाराजा रणजीत सिंह ने सन् 1801 में स्वर्ण मन्दिर को भेंट किया था। इलाके के श्रद्धालु लोगों द्वारा प्रसिद्ध पत्रकार और संसद सदस्य डा0 बनारसीदास चतुर्वेदी और इतिहासकार ठाकुर देशराज के संपादकत्व में तैयार करवाया गया ‘‘स्वामी केशवानन्द अभिनन्दन ग्रन्थ’’ राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री मोहनलाल सुखाड़िया द्वारा स्वामी जी को एक विशाल सम्मेलन में 9 मार्च 1958 को भेंट किया गया। पुरातत्व विशेषज्ञ डा0 वासुदेवशरण अग्रवाल स्वामी जी का संग्रहालय देखने सन् 1948 में ग्रामोत्थान विद्यापीठ में आए। सन् 1953 में रेलवे मंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री, सन् 1957 में प्रसिद्ध हिन्दी-सेवी राजर्षि पुरूषोतमदास टण्डन और सन 1959 में प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इन्दिरा गांधी और आचार्य विनोबा भावे संगरिया पधारे और ग्रामोत्थान विद्यापीठ की शैक्षिक प्रवृतियों को देखकर अत्यन्त प्रभावित हुए। अपनी उसी यात्रा का स्मरण करते हुए प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने स्वामी जी की पुण्य-तिथि (13 सितम्बर) पर प्रकाशित होने वाली ‘‘स्मारिका’’ के लिए दिए गए अपने 6 सितम्बर, 1984 के सन्देश में लिखा था, ‘‘स्वामी केशवानन्द जी स्वतंत्रता के एक सजग प्रहरी थे। साथ ही उन्होंने राजस्थान, हरियाणा और पंजाब में शिक्षा, महिला कल्याण और दलित वर्ग के उत्थान के लिए सराहनीय कार्य किया। संगरिया में ग्रामोत्थान विद्यापीठ ग्रामीण क्षेत्र में उनके कार्यों का एक जीवित स्मारक है।’’
फाजिल्का-अबोहर के इलाके में उन दिनों प्रान्त की सरकारी भाषा उर्दू का बोलबाला था, हिन्दी भाषा के पढ़ने-पढ़ाने में किसी को कोई रुचि नहीं थी। वहां के गांवों की सामाजिक अवस्था भी उन रेगिस्तानी गांवों जैसी ही थी जहाँ केशवानन्द की आयु के प्र्रथम 16 वर्ष बीते थे। अतः उस क्षेत्र के ग्रामीण समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और अर्थहीन रूढ़ियों की जड़ खोदने के लिए साधु केशवानन्द ने आवश्यक समझा कि उन्हें हिन्दी भाषा का ज्ञान देकर भारतीय संस्कृति के सही रूप से परिचित कराया जावे। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्होंने सन् 1911 में साधु आश्रम (गुरू-डेरे) में एक पुस्तकालय-वाचनालय का आरम्भ कर दिया, जहां हिन्दी की पुस्तकें और समाचार- पत्र मंगाए जाते थे। शहर के आदमी उनसे लाभ उठाते और हिन्दी का स्वतः प्रचार होता। वे स्वयं हिन्दी-पुस्तकों की गठरी बांधकर आस-पास के गांवों में ले जाते और लोगों को उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित करते। सन् 1912 में उन्होंने आश्रम में एक संस्कृत पाठशाला भी आरम्भ कर दी। उन्हें मठाधीश बने रहकर पैर पुजाने, आशीष देने का कर्मकाण्डी जीवन पसन्द न आया, अतः सन् 1916 में उन्होंने अपनी फाजिल्का की गुरुगद्दी का त्याग करके अपने हिन्दी-प्रचार-कार्य को आगे बढ़ाने के निमित अबोहर में ‘‘नागरी प्रचारणी सभा’’ की स्थापना की। सन् 1924 में उन्होंने इलाके में व्यापक रूप से हिन्दी का प्रचार करने के लिए सार्वजनिक सहयोग से ‘‘साहित्य सदन अबोहर’’ नाम की संस्था का श्रीगणेश किया। साहित्य सदन अबोहर द्वारा ‘‘चल पुस्तकालय’’, केन्द्रीय पुस्तकालय-वाचनालय, हिन्दी की ग्रामीण पाठशालाओं, ‘‘दीपक प्रेस’’ लगाकर हिन्दी मासिक ‘‘दीपक’’ और ग्रामोपयोगी सत्साहित्य का प्रकाशन आदि योजनाओं से इलाके में हिन्दी के पठन-पाठन को बढ़ावा दिया गया। साहित्य सदन में ही हिन्दी साहित्य-सम्मेलन प्रयाग, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा और पंजाब विश्व-विद्यालय की हिन्दी परीक्षाओं के केन्द्र स्थापित कराए गए और हिन्दी विद्यालय प्रारम्भ कर उन परीक्षाओं की तैयारी का प्रबन्ध किया गया। इन विभिन्न परीक्षाओं में प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में छात्र-छात्राएं प्रविष्ट होते थे। साहित्य-सदन के प्रबन्ध में इलाके के झूमियांवाली, मौजगढ़, जंडवाला, हनुमन्ता, भंगरखेड़ा, पंचकोसी, रामगढ़, रोहिड़ांवाली, चूहड़ियां वाला, कुलार, सीतो, बाजीदपुर, कल्लरखेड़ा, पन्नीवाला, माला आदि 25 गांवों में हिन्दी की प्राथमिक पाठशालाएं चलती थीं, जिनमें प्रौढ़-शिक्षा का भी प्रबन्ध था। साहित्य-सदन अबोहर में ही सन् 1933 में नौवां पंजाब प्रातीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन और सन् 1941 में अखिल भारतवर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का तीसवां अधिवेशन अत्यन्त सफलता-पूर्वक सम्पन्न हुए। राष्ट्र-भाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार की इन गतिविधियों का सुपरिणाम यह हुआ कि सन् 1947 में देश-विभाजन के समय फाजिल्का तहसील, जिसमें अबोहर भी शामिल था, बड़े-बड़े प्रभावशाली मुसलमान जागीरदारों, काश्तकारों और व्यापारियों की पर्याप्त आबादी होते हुए भी, हिन्दी-भाषी और हिन्दू-सिख बहुल मानी जाकर पाकिस्तान में जाने से बच सकी और उसके साथ लगती छोटी-छोटी मुस्लिम रिसायतें जलालाबाद और ममदोट भी भारतवर्ष के हिस्से में आ गईं।
शिक्षा-प्रचार-प्रसार, ग्रामोत्थान विधापीठ संगरिया का निर्माण शिक्षा-प्रचार-प्रसार, ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया का निर्माण:- फाजिल्का की गुरुगद्दी त्याग कर स्वामी जी ने सन् 1917 में अबोहर-फाजिल्का क्षेत्र में समाज सुधार और हिन्दी-भाषा-प्रचार का कार्य आरम्भ किया था। उसी वर्ष अविद्या और रूढ़िवादी मान्यताओं से घिरे बीकानेर के गांवों की दशा सुधारने का संकल्प लेकर वहां शिक्षा प्रचार के लिए चौ. बहादुर सिंह भोबिया ने 9 अगस्त 1917 को जाट एंग्लो-संस्कृत मिडिल स्कूल संगरिया की नींव डाली। श्रीगंगानगर (तत्कालीन रामनगर) के निवासी चौ. हरिश्चन्द्र नैण वकील भी अविद्या के कारण इलाके के गांव-वासियों की दुर्दशा और पिछडे़पन से दुःखी थे, अतः वे भी शिक्षा-प्रचार के शुभ कार्य में चौ. बहादुर सिंह का पूरा साथ देने लगे। उनके प्रयत्नों से पन्नीवाली के ठाकुर गोपाल सिंह राठौड़ से संगरिया में 14 बीघा 3 बिस्वा भूमि दान में प्राप्त कर वहां 5 कच्चे कमरों और दो कच्ची बैरकों का निर्माण हुआ और विद्यालय एवं छात्रावास का संचालन होने लगा। विद्यालय का सब प्रकार का व्यय गांवों से दान-संग्रह करके पूरा किया जाता था। छात्रों की शिक्षा निःशुल्क थी। सन् 1923 तक जाट विद्यालय संगरिया के प्रबन्ध में गोलूवाला, घमूड़वाली और मटीली में भी शाखा प्राथमिक-शालाएं प्रारम्भ कर दी गईं। जून सन् 1924 में चौ. बहादुर सिंह का देहावसान हो गया और विद्यालय संचालन का भार प्रमुखतः चौ. हरिश्चन्द्र नैण पर रहा। अगले आठ वर्ष तक संगरिया के निकटवर्ती गांवों एवं स्थानीय सज्जनों की एक प्रबन्ध समिति गठित करके और स्वयं संचालन सचिव रह कर वे आर्थिक संकट से जूझते हुए विद्यालय का संचालन ही नहीं करते रहे बल्कि उन्होंने मानकसर, हरीपुरा, दीनगढ़, पन्नीवाली, नगराना, नुकेरा, कुलार और चौटाला गांवों में भी शाखा-प्राथमिक शालाएं खुलवाईं। स्वामी केशवानन्द जी भी अबोहर के साहित्य सदन के संचालन के लिए दान-संग्रह के सिलसिले में संगरिया के आस-पास के गांवों में आते-जाते जाट विद्यालय में रुककर यहां के कार्य को देख चुके थे। जब आर्थिक संकट काबू से बाहर हो गया, तो जाट विद्यालय की प्रबन्ध समिति ने जाट स्कूल को बंद करने का मन बनाकर, उस पर निर्णय लेने के लिए 18 दिसम्बर 1932 को शिक्षा-प्रेमी सज्जनों की एक बैठक बुलाई और उसमें स्वामी केशवानन्द जी को भी आंमत्रित किया। विद्यालय बंद करने का प्रस्ताव सामने आते ही स्वामी जी ने उसका विरोध किया और साहित्य सदन अबोहर का कार्यभार अपने ऊपर होते हुए भी उपस्थित सज्जनों के अनुरोध पर उसके संचालन का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया। स्वामी जी का यह निर्णय इलाके के गांवों के लिए कालान्तर में वरदान सिद्ध हुआ। स्वामीजी विद्यालय की दशा सुधारने में जी-जान से जुट गए और उन्होंने इलाके से दान-संग्रह करके सन् 1935 तक, पहले के पांच कच्चे कमरों के स्थान पर मुख्य पक्का विद्यालय-भवन सरस्वती-मंदिर, औषधालय-रसायनशाला, पुस्तकालय-भवन और यज्ञशाला, व्यायामशाला, ‘‘आर्यकुमार आश्रम’’ छात्रावास और दो पक्के जलाशयों (कुण्डों) से युक्त सुन्दर शिक्षा-उपनिवेश खड़ा कर दिया। सन् 1943 तक विद्यार्थी-आश्रम-छात्रावास व सभा-भवन, गौशाला-भवन, पांच अध्यापक-निवास, अतिथिशाला, स्नानागार और एक कुण्ड और निर्मित करवाकर विद्यालय को हाई स्कूल में उन्नत कर दिया गया। सन् 1948 तक वहां आयुर्वेद शिक्षा, वस्त्र-निर्माण और सिलाई, काष्ठ-कला और धातु-कार्य आदि उद्योगों की शिक्षा चालू कर संस्था का नाम ‘‘ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया’’ कर दिया गया। जाट स्कूल की दशा सुधारने के पश्चात् स्वामी जी का ध्यान बीकानेर राज्य के उन मरूस्थलीय गांवों में शिक्षा-प्रचार की ओर गया, जहां उन्होंने जीवन के प्रथम सोलह वर्ष बिताए थे। जाट विद्यालय के लिए दान-संग्रह के सिलसिले में भी उन्होंने अनेक बार उन गांवों के पैदल चक्कर लगाए थे, अतः वे वहां की हर समस्या से परिचित थे। उस अनुभव के आधार पर उन्होंने वहां शिक्षा-प्रचार की एक विस्तृत योजना बनाई और उसे ‘‘मरू-भूमि सेवा-कार्य’’ नाम दिया। इस योजना को गांवों तक ले जाने के लिए उन्होंने गांवों से जुड़े कर्मठ कार्यकत्ताओं का सहयोग लिया, जिनमें प्रमुख थे चौ. दौलतराम सारण, चौ. हसंराज आर्य, लोक कवि सरदार हरदत्त सिंह भादू, चौ. रिक्ताराम तरड़, व्यायामाचार्य श्री रामलाल काजला ओर श्री लालचंद पूनिया। योजना का संचालन-कार्यालय ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया में रखकर उन्होंने सन् 1944 से 1959 तक के वर्षों में ‘‘त्रैमासिक शिक्षा योजना’’, ‘‘ग्रामोत्थान पाठशाला योजना’’ और ‘‘समाज शिक्षा-योजना’’ के अन्तर्गत मरूभूमि के गांवों में 287 शिक्षा-शालाओं की स्थापना और संचालन किया। इस कार्य में उन्होंने ग्रामवासियों तथा मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी कलकता का भरपूर सहयोग लिया। इन शालाओं में छात्र-छात्राओं की शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा और गांव वालों की प्राथमिक चिकित्सा का प्रबन्ध रहता था। इन शिक्षा-योजनाओं से बीकानेर, लूनकरणसर, सूरतगढ़, हनुमानगढ़ नोहर, भादरा, राजगढ़, चूरू, रतनगढ़, सुजानगढ़, डूंगरगढ़, नापासर और सरदारशहर तहसीलों के गांवों में शिक्षा प्रचार का इतना कार्य हुआ कि वहां जागृति की लहर उठ खड़ी हुई और लोगों में उन्नति की चाह और उत्साह पैदा हो गया। स्वामी जी की शिक्षा प्रचार की इन योजनाएं के महत्व को समझकर प्रोफेसर ब्रजनारायण कौशिक ने स्वामी जी को ‘शिक्षा-सन्त’ विशेषण देते हुए उनकी प्रथम जीवन गाथा ‘‘शिक्षा संत स्वामी केशवानन्द’’ सन् 1968 में लिखी थी। स्वामी जी के शिक्षा प्रचार की व्यापकता: 1. फाजिल्का-अबोहर क्षेत्र में - झूमियांवाली, मौजगढ़, जंडवाला, हनुमन्ता, भंगरखेड़ा, पंचकोसी, रामगढ़, रोहिड़ांवाली, चूहड़ियांवाली, कुलार, सीतो, बाजिदपुर, कल्लरखेड़ा, पन्नीवाला, माला। 2. बीकानेर स्टेट में जाट विद्यालय संगरिया के प्रबन्ध में:- (सन् 1917 से 1924 तक चौ. बहादुर सिंह के समय में) नगराणा, पन्नीवाली, घमूडवाली, गोलूवाला, कन्या पाठशाला रामनगर, नुकेरा, हरिजन बस्ती संगरिया, रात्रि हाई स्कूल चौटाला। 3. मरूभूमि सेवा - कार्य के अन्तर्गत (स्वामी केशवानन्द जी के समय में) - 1. बीकानेर तहसील - बासंी, बरसंगसर 2. नोखा तहसील - भामड़सर, कुचौर 3. श्री डूंगरगढ़ तहसील - सूड़सर, लिखमीसर, कल्याणसर 4. सुजानगढ़ तहसील - सुजानगढ़, मलसीसर, खीचीवाला, खारिया 5. रतनगढ़ तहसील - लाधड़सर 6. सरदारशहर तहसील - सारसर, ढाणी पांचेरा, रंगाईसर, ढ़ाणी पांडूसर, अड़सीसर, भोमासर, राजसर, राणासर, जैतासर, सांबर, रामपुरा, बजरांगसर, पिचकराई ताल, माणकसर, भादासर, भागापुर ा, खेजड़ा, बोघेरा, बिल्लू। 7. लूनकरनसर तहसील - छिन्दोर बिश्नोइयांन, खानीसर, भाणेरा, मोटलाई, खींयेरा, मिठडिया, महाजन, शेरपुरा, खोडाला, नाथवाना, मनापरसर, सुरनाणा, अमरपुरा, सहजरासर। 8. चुरू तहसील - जोड़ी, खंडवा, महरावणसर, पिरथीसर, बीलासर, खींवासर, भामसी, सात्यूं, सिरसली, बन्दर, खांसोली। 9. तारानगर तहसील - लेड़वा, भाड़सर, भनीन, पंडरेउटीबा, चंगोईढ़ाणी, ओसा, ढ़ाणी कस्वां, झाड़रा 10. राजगढ़ तहसील - लीलकी, बीरमी, महलाना, चिमनपुरा, बूंदीताल, लाखलान, नदवासी, रतनपुरा, रामसरा ताल, हांसियावास, मिठी, गुरूपुरा, खैरूबड़ी, नवां, मेसल 11. भादरा तहसील - नेठराणा, भोजासर, खचवाना, भरवाना, सरदारपुरा वास, बिराण, मोठसरा, करणपुरा, नुहा, रासलाण, कणाऊ, कंूजी, घोटड़ा, डूंगराना, डूंगरसिंहपुरा 12. नोहर तहसील - जतानियां, पदमपुरा, राजपरिया, ढंढेला, बुधवालिया, चाइया, ढ़ाणीलालखां, टोपरियां, देईदास, किकरांवाली, सरदारपुरा, मूकरका, गंधेली, रामपुरा, न्यौलखी, रामकां, लाखेरा, पल्लू, धन्नासर, हरदासवाली, मोटेर, उदासर, दनियांसर, नैयासर, सरूपदेसर, धनियांसर, बिसरासर केलनियां, थिराना, कान्हसर, सिरंगसर, धानसिया, नीमला, जबरासर, पाण्डूसर, सोनड़ी, गोरखाना, ललानियां, चकसरदारपुरा, बड़विराणा, ढ़ीलकी, उजलवास, रासमपुर, ललाना, दुजाना, नाथवानियां, नहराणां, मेघाणा, शिवराणा, भमूली, टोडियासर। 13. हनुमानगढ़ तहसील - डबलीकलां, डबली खुर्द, रणजीतपुरा, भोमपुरा, रामपुरा, जोरावरपुरा, मोहनमगरिया, महरवाला, अराइयांवाली, तंदूरवाली, नाईवाला, दौलतपुरा, मल्हडखेड़ा, रतनपुरा, नगराणा, चौटाला (हरियाणा) कुलार (पंजाब) धोलीपाल, चक हीरा सिंह वाला, बोलांवाली, हरीपुरा, प्रतापपुरा, गदरखेड़ा, अमरगढ़, रासूवाला, मालारामपुरा, चमारखेड़ा, पतली, नुकेरा, ढ़ाबां, चकखारा, बुगलांवाली, चकमाणूका, छापांवाली, माणकसर, मक्कासर, खाराखेड़ा, टिब्बी, तलवाड़ाकलां, मैनावाली, सेलेवाला छोटा, मसीतांवाली, चहूवाला। 14. श्रीगंगानगर तहसील - चक चार सी, ढ़ाणी भादवां, खाटसजवार, मम्मड़, सरदारपुरा, हाकमाबाद 15. सूरतगढ़ तहसील - बीरमाणा, उदयपुर, पण्डितांवाली, एटा, सोमासर स्वामी जी की कर्मठता से संगरिया की संस्था ग्रामोत्थान विद्यापीठ भी निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर रही। स्वामी जी के जीवन काल में सदैव निर्माण-कार्य चालू रहा और संस्था का विकास होता रहा। सन् 1972 तक उसमें कृषि-कला-विज्ञान महाविद्यालयेेे, 300 एकड़ का कृषि फार्म, शिक्षा महाविद्यालय, शिक्षक-प्रशिक्षण विद्यालय, छात्र और छात्राओं के उच्च माध्यमिक विद्यालय, पुस्तकालय-वाचनालय, संग्रहालय, छात्र-छात्राओं के अलग-अलग छात्रावास आदि शैक्षिक प्रवृतियां और स्वास्थ्य-रक्षा और आयुर्वेद-शिक्षा के लिए नवजीवन औषधालय-रसायनशाला की स्थापना हो चुकी थी। संस्था में लगभग 4000 छात्र-छात्राएं अध्ययन करते थे और उनमें से 800 विभिन्न छात्रावासों में रहते थे। समाज-सुधार कार्य :- स्वामी जी ने मरूस्थल में प्रचलित मृत्युभोज, अनमेल विवाह, बालविवाह, नारी उत्पीड़न, पर्दा-प्रथा, शोषण और नशा-सेवन आदि, समाज को गरीबी और कष्टों में डालने वाली बुराइयों का भी खूब अनुभव किया था। इसलिए वे लोक-सेवा का मार्ग पकड़ते ही सन् 1908 से इनके विरोध में प्रचार करते आ रहे थे। सन् 1942 में जाट विद्यालय संगरिया की रजत-जयन्ती के अवसर पर सार्वजनिक सभा में उन्होंने मृत्यु-भोज (औसर) पर कानूनी पाबन्दी लगाने का प्रस्ताव पारित करवा कर बीकानेर-सरकार को भेजा था जिसे सरकार ने स्वीकार कर राज्य में मृत्यु-भोज को कानून-विरूद्ध ठहराया था। ‘‘मरूभूमि सेवा कार्य’’ के स्कूलों में भी इन बुराइयों के विरूद्ध प्रचार किया जाता था। सन् 1967 में स्वामी जी को श्रीगंगानगर जिला सर्वोदय मण्डल और जिला नशाबन्दी समिति का अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने प्रचारार्थ एक इश्तिहार में लिखा, ‘‘हम इतिहास-प्रसिद्ध सर्वखाप पंचायत का सातवां अधिवेशन संगरिया में बुलाकर विवाह-प्रथा में सुधार करना चाहते हैं, दहेज की कुप्रथा को मिटाकर विवाहों में पांच बाराती ले जाने और दान में एक रूपया और नारियल देने की प्रथा चलाना चाहते हैं। विवाहों में फिजूल-खर्ची का रूपया बचाकर बच्चों की, विशेषकर कन्याओं की शिक्षा में लगाना चाहते हैं। इसके अलावा इस क्षेत्र में शराब और तमाखू के दुर्व्यसनों को हटाने तथा आपसी झगड़ों का निपटारा कराने के लिये ग्रामीण लोगों के थाना-कचहरियों में जाने के विरुद्ध प्रचार करना और पंच फैसलों के द्वारा झगड़े निपटाने के पक्ष में जनमत बनाना चाहते हैं।’’ उन्होंने इस आशय के बड़े-बड़े चार्ट भी बनवाकर इलाके में गाँवों की दीवारों पर लगवाये।
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